Sunday 27 May 2012

अंतर्मुखी होना तत्वज्ञान के उन्मुख होना,विवेकप्रधान होना है


किसी शब्द की परिभाषा सार्थक सिद्ध तभी होती है जब हम उसे संयत व निष्पक्ष भाव से समझें व उसमे अपनी चतुराई (अपनी सुविधा के लिए )आक्षेपित न करते हुए बुद्धिमानी से यथार्थः समझें
शब्द या उसका अर्थ हमसे ये कभी नहीं कहता की उस जैसा बनो वो तो बस अपना अर्थ ही बताता है उसका निरूपण कैसे करना है ये प्राणीविशेष पर निर्भर होता है
कई बार व्यक्ति समभाव से अपने द्रष्टिकोण से भी शब्द की परिभाषा अथवा उसकी व्याख्या करता है जिससे शब्द की परिभाषा और सरल व स्पष्ट हो जाती है जो की बहुत अच्छी बात है


जीव स्वभावत: दो प्रकार के होते हैं -अंतर्मुखी तथा बहिर्मुखी। अंतर्मुखी प्रतिभा के व्यक्ति बाहरी संसार से तथा भौतिक सुखों से विरक्त रहते हुए अपनी अंतरात्मा के सम्यक विकास के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। 

बहिर्मुखी प्रतिभा का व्यक्ति भौतिकता में आसक्त होकर विविध सांसारिक कार्यों में लिप्त रहता है। 
यथार्थ में ये दोनों मार्ग एक दूसरे के पूरक हैं, क्योंकि कोई भी मनुष्य न पूर्णतया अंतर्मुखी हो सकता है और न पूर्णतया बहिर्मुखी। प्राय: सभी प्राणी कुछ अंशों में बहिर्मुखी होते हैं।


मेरे विचार से अंतर्मुखी होने का तात्पर्य अनासक्त होने से है अथार्त संसार अनित्य है आत्मा नित्य है ये तत्वज्ञान होने से है,अपने अन्दर झाकने से है,निर्विकार होने से है अथार्त हम अपने विकारों को समझें उनका निरीक्षण करें और साथ ही साथ अपने स्वरुप को अथार्त आत्मा को अविकारी व अविनाशी समझें और इस तरह से  स्वयं को स्वरूपतः शुद्ध अविनाशी,निर्विकार जानें शुद्ध भक्ति के लिए ये अत्यंत आवश्यक है की हम अपने को निष्काम(ईश्वर से कुछ भी मांगने की अभिलाषा न)  रखें,साथ ही काम,क्रोध,लोभ,दंभ,मोह आदि विकारों से अंतःकरण को शुद्ध रखें ।इस तरह से मननशीलता ही अंतर्मुखी होना है तभी व्यक्ति ये समझ सकता है या ये समझने की चेष्टा कर सकता है की वास्तव में विकार तो उसके मन द्वारा हो रहे हैं जिसका संकल्प बुद्धि द्वारा हो रहा वस्तुतः विचार ही व्यक्ति को बाँध रहे हैं जिससे जीव शुद्ध आत्मा में भी विकार देखने लगता है ।यदि व्यक्ति कुविचार की जगह सुविचार को प्रधानता दे तो इसी बुद्धि को सात्विक करके मन में सात्विक भावों को बढ़ाके अपना आत्मिक कल्याण कर सकता है जिसके लिए सबसे अधिक आवश्यक ये है की वो विकारों को अपना न माने व स्वयं के स्वरुप(आत्मा) को ही मन,बुद्धि,इन्द्रियों का प्रकाशक माने और अपने कल्याण के साधन हेतु (अविकारी भाव) इनका सदुपयोग करे



रामचरिमानस में आया है :

उत्तरकाण्ड 
ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी॥1॥
सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईं॥
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई॥2॥
अथार्त जीव की आत्मा ईश्वर का अंश है जो की स्वरुप से ही चेतन,विकाररहित और आनंद मय
है परन्तु जीव अपने को ईश्वर से अलग मानके माया के वशीभूत होकर तोते और वानर की भाँति अपने आप ही बँध गया। इस प्रकार जड़ और चेतन में ग्रंथि (गाँठ) पड़ गई। यद्यपि वह ग्रंथि मिथ्या ही है, तथापि उसके छूटने में कठिनता है॥ 

 मेरा उद्देश्य इसी बात को अनगित करना था तत्वज्ञान के लिए व्यक्ति का अंतर्मुखी होना अथार्त अपनी इन्द्रियों को अपनी वृत्तियों को बाहर(संसार) की तरफ न ले जाके आत्मा की तरफ करना ही अंतर्मुखी होना होता है
अंतर्मुखी व्यक्ति कम बोले ज्यादा बोले इससे कोई प्रयोजन नहीं परन्तु तत्वज्ञान के बाद स्वतः ही व्यक्ति गंभीर हो जाता है हालाँकि चूँकि संसार में रहना है तो उसे कई मौकों पर विनोद,सुख दुःख  आदि से गुज़रना होता है और वो ऐसा करता भी है परन्तु अन्दर से संसार के प्रति उसकी आसक्ति नहीं होती
लौकिक भाषा में जो हम बहिर्मुखी को यानी खुले विचार वालों या स्पष्टतः बोलने वालों को ये समझें की इन्हें तत्वज्ञान के लिए कम बोलना चाहिए तो ये बात निरर्थक है व्यक्ति को अपनी प्रकृति बदले बिना अपनी प्रवृत्ति अनासक्ति के उन्मुख करनी चाहिए बस इतनी सी बात है । अथार्त बहिर्मुखी भी तत्वज्ञानी हो सकते हैं परन्तु उन्हें अंतर्मुखी (अनासक्त) रहने से ही तत्वज्ञान सही अर्थों में प्राप्त होगा
 
मूल उद्देश्य यही है की शब्द से ज्यादा हम उसके अर्थ पर ध्यान दें जो की यही है की व्यक्ति के अन्दर दो तरह की बुद्धि होती है विवेक प्रधान और अविवेकप्रधान । हम जितना ज्यादा विवेक प्रधान होने हमे जगत उतना ही विकार रहित नज़र आएगा उतना ही हम अहिंसा,प्रेम,सहिष्णुता,निस्वार्थता,मानवता का सन्देश देंगे,ऊर्ध्वमुखी होंगे  व हम जितना अविवेक को महत्व देंगे उतना ही काम,क्रोध के ग्रास बनेंगे व अच्छी से अच्छी बात में दोष देखेंगे,सुखदायी परिस्थति में भी दुःख देखेंगे व जाने अनजाने विकार को अपने में और समाज में बढाते जायेंगे और इस तरह आत्मिक पतन के पथ पर अग्रसर होते जायेंगे

श्री भगवान् ने श्रीमद भगवदगीता में सोलहवें अध्याय में विस्तार से विवेक और अविवेकप्रधान वृत्ति पर कहा है :


द्वौ भूतसर्गौ लोकऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ में श्रृणु॥ 

भावार्थ :  हे अर्जुन! इस लोक में भूतों की सृष्टि यानी मनुष्य समुदाय दो ही प्रकार का है, एक तो दैवी प्रकृति वाला और दूसरा आसुरी प्रकृति वाला। उनमें से दैवी प्रकृति वाला तो विस्तारपूर्वक कहा गया, अब तू आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य समुदाय को भी विस्तारपूर्वक मुझसे सुन॥6॥ 

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते॥ 



भावार्थ :  आसुर स्वभाव वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति- इन दोनों को ही नहीं जानते। इसलिए उनमें न तो बाहर-भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्य भाषण ही है॥7॥

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्‌।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्‌॥

भावार्थ :  वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहा करते हैं कि जगत्‌ आश्रयरहित, सर्वथा असत्य और बिना ईश्वर के, अपने-आप केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न है, अतएव केवल काम ही इसका कारण है। इसके सिवा और क्या है?॥8॥
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः॥

भावार्थ :  इस मिथ्या ज्ञान को अवलम्बन करके- जिनका स्वभाव नष्ट हो गया है तथा जिनकी बुद्धि मन्द है, वे सब अपकार करने वाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत्‌ के नाश के लिए ही समर्थ होते हैं॥9॥
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद्‍गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः॥ 

भावार्थ :  वे दम्भ, मान और मद से युक्त मनुष्य किसी प्रकार भी पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर, अज्ञान से मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों को धारण करके संसार में विचरते हैं॥10॥
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः॥

भावार्थ :  तथा वे मृत्युपर्यन्त रहने वाली असंख्य चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले, विषयभोगों के भोगने में तत्पर रहने वाले और 'इतना ही सुख है' इस प्रकार मानने वाले होते हैं॥11॥
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्‌॥

भावार्थ :  वे कामना की सैकड़ों फाँसियों से बँधे हुए मनुष्य काम-क्रोध के परायण होकर विषय भोगों के लिए अन्यायपूर्वक धनादि पदार्थों का संग्रह करने की चेष्टा करते हैं॥12॥

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्‌।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्‌॥

भावार्थ :  वे सोचा करते हैं कि मैंने आज यह प्राप्त कर लिया है और अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लूँगा। मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह हो जाएगा॥13॥

असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी॥

भावार्थ :  वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा। मैं ईश्वर हूँ, ऐश्र्वर्य को भोगने वाला हूँ। मै सब सिद्धियों से युक्त हूँ और बलवान्‌ तथा सुखी हूँ॥14॥

आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः॥
 
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ॥



भावार्थ :  मैं बड़ा धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और आमोद-प्रमोद करूँगा। इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले मोहरूप जाल से समावृत और विषयभोगों में अत्यन्त आसक्त आसुरलोग महान्‌ अपवित्र नरक में गिरते हैं॥15-16॥ 



आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्‌॥


भावार्थ :  वे अपने-आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरुष धन और मान के मद से युक्त होकर केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्रविधिरहित यजन करते हैं॥17॥

अहङ्‍कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥

भावार्थ :  वे अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादि के परायण और दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामी से द्वेष करने वाले होते हैं॥18॥
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌॥
भावार्थ :  काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के द्वार ( सर्व अनर्थों के मूल और नरक की प्राप्ति में हेतु होने से यहाँ काम, क्रोध और लोभ को 'नरक के द्वार' कहा है) आत्मा का नाश करने वाले अर्थात्‌ उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए॥21॥
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्‌॥
भावार्थ :  हे अर्जुन! इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है (अपने उद्धार के लिए भगवदाज्ञानुसार बरतना ही 'अपने कल्याण का आचरण करना' है), इससे वह परमगति को जाता है अर्थात्‌ मुझको प्राप्त हो जाता है॥22॥ 

और फिर अठारहवें अध्याय में विशुद्ध भाव को प्राप्त हुए जीव के लिए भगवान् कहते हैं:


बुद्ध्‌या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥
अहङकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्‌।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥ 


भावार्थ :  विशुद्ध बुद्धि से युक्त तथा हलका, सात्त्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकांत और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, सात्त्विक धारण शक्ति के (इसी अध्याय के श्लोक 33 में जिसका विस्तार है) द्वारा अंतःकरण और इंद्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला, राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके भलीभाँति दृढ़ वैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरंतर ध्यान योग के परायण रहने वाला, ममतारहित और शांतियुक्त पुरुष सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में अभिन्नभाव से स्थित होने का पात्र होता है॥51-53॥ 

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्‌॥ 
भावार्थ :  फिर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मनवाला योगी न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में समभाव वाला (गीता अध्याय 6 श्लोक 29 में देखना चाहिए) योगी मेरी पराभक्ति को ( जो तत्त्व ज्ञान की पराकाष्ठा है तथा जिसको प्राप्त होकर और कुछ जानना बाकी नहीं रहता वही यहाँ पराभक्ति, ज्ञान की परानिष्ठा, परम नैष्कर्म्यसिद्धि और परमसिद्धि इत्यादि नामों से कही गई है) प्राप्त हो जाता है॥54॥

Friday 2 March 2012

सत्संग

क्या हम ये चिंतन करते हैं की हम किस दिशा में जा रहे हैं और हमारे किये गए कर्मों का हमारे आध्यात्मिक जीवन में क्या स्थान है ?
क्या हमारे किए गए कर्म हमे आध्यात्मिक मार्ग से विमुख कर रहे हैं या हम ठीक जा रहे हैं ?
क्या हम इस बात को सोचते हैं की कोई भी अमर नहीं है एक न एक दिन सभी को जाना है ?
क्या हमने अपनी मृत्यु के बाद के लिए कुछ सोचा है ?
क्या हमे ये मालूम है की अपने कर्म करते हुए भी हम अपने आध्यात्मिक  पथ पर सफल रह सकते हैं ?
क्या हम अपना व अपने विचारों का आंकलन करते हैं ।
क्या हम इस सोच के साथ जीते हैं की प्रति क्षण ईश्वर प्रदत्त है व सत्कार्यों के लिए मिला है ।
अपने जीवन काल के बाद यदि हमे ईश्वर कहे की हे प्राणी मैं ही तो तेरे बंधू बांधव मित्र रिश्तेदार यहाँ तक की जिनसे तू द्वेष रखता रहा उनमे भासता था वो मैं ही था तो हम ईश्वर को क्या जवाब देंगे ।
 

क्या हम कभी ये सोचते हैं की हम क्या कर रहे हैं ?
यदि सोच भी रहे हैं तो हम क्या सोच रहे हैं क्या ये सोचते हैं ?
क्या इससे हमारा कुछ कल्याण हो सकता है ?
कल्याण की असली परिभाषा क्या है ।


मैं कोई बहुत बड़ा ज्ञानी नहीं पठन-पाठन व नेट आदि के आधार पर व अपने थोड़े से अनुभव के आधार पर ही कुछ लिख रहा हूँ


हमारी सोच हमारा नजरिया ही हमारे जीवन का प्रतिनिधित्व करता है
भौतिक सामाजिक जीवन जिसमे हम अर्थ को ज्यादा प्रधानता देते हैं ।
और पारलौकिक
या फिर आध्यात्मिक जिसमे चिंतन व कर्मों में चिंतन के क्रियान्वन की प्रधानता है ।
मेरा मानना है की ज़्यादातर लोग बिना ये सोचे समझे की किस दिशा में चलना है की जगह चलना है इसलिए चल पड़ते हैं अथार्त जीवन निर्वाह कर देते हैं ।
व्यक्ति अपने अगल बगल की दुनिया को देखके बस उसे अनुसरण करने लगता है ।
बस इसी में उसका जीवन निकल जाता है और इस बीच यदा कदा किसी से ज्ञान सम्बन्धी बात सुनके अथवा टीवी आदि पर किसी माध्यम से सत्संग थोडा बहुत पाके भी अपने मन को चिंतन में नहीं लगा पाता क्यूंकि उसे इसकी अहमियत का भान नहीं होता व वो इन्हें प्राथमिकता पर भी नहीं रखता ।
सच्चाई ये है की चार प्रकार के जीव (जरायुज,अण्डज,स्वदेज,उदि्भज) में ये सिर्फ आदमी को ही प्रभु ने इस तरह चिंतन करने योग्य बनाया है की वो विवेक की प्रधानता से अपने जीवनकाल में ही जीवन्मुक्त हो सकता है।

रामायण में आया है


एही तन कर फल विषय न भाई
स्वर्गाऊ स्वल्प अंत दुखदायी
नर तन पाई विषय मन देहि पलटी सुधा ते सठ बिष लेहीं      (उत्तरकाण्ड)

अथार्त इस मानव शरीर का उद्देश्य विषय सेवन नहीं है और स्वर्ग भी व्यक्ति के पुण्य फलों तक ही है और अंत वहां भी दुखदायी है क्यूंकि फिर मनुष्यलोक में आना होगा ।
मनुष्य तन पाके भी अगर उद्धार करने की जगह व्यक्ति विषय सेवन में लगता है तो ऐसे मूर्ख ने अमृत के बदले विष ले लिया ।


गीता में भगवान् ने कहा है


अध्यार ४
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
भावार्थ :  इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है॥38॥

ज्ञान अथार्त व्यक्ति का विवेकयुक्त ज्ञान ही व्यक्ति का सबसे बड़ा गुरु होता है ।
गुरु यानी गु (अँधेरा)+ रु (उजाला) अँधेरे से उजाले की ओर उन्मुख कराने वाला ये सत्य है की सतगुरु अथवा गुरु का गान प्रायः वेदों ने भी किया है परन्तु इस कलिकाल में यदि सच्चा गुरु न भी मिल पाए तो भी अपने विवेक का आश्रय लिए रखना चाहिए व स्वाध्याय तथा सत्संग से उसे निरंतर प्रदीप्तमान रखना चाहिए ।

बिनु सत्संग विवेक न होइ (बालकाण्ड)


कई बार व्यक्ति आध्यात्मिक लक्ष्य को सिर्फ मोक्ष (जीवन चक्र अथार्त योनी भ्रमण से मुक्ति) ही मान लेता है
। 
 इस तरह की और भी जानकारियाँ हमे स्वाध्याय व सत्संग से ही मिल सकती हैं ।मोक्ष से भी बढ़के शास्त्रों ने भक्ति को बताया है ।

देखिये भरत जी का ये दोहा जो उन्होंने अयोध्याकाण्ड में कहा है


अर्थ न धरम न काम रूचि गति न चहहूँ निर्बान
जनम जनम रति राम पद ये बरदान न आन


इनके साथ साथ अथार्त स्वाध्याय व सत्संग के पठन -पाठन  के साथ साथ श्रवण का भी बहुत महत्व है क्यूंकि कई बार कोई ब्रह्मज्ञानी टीवी अथवा कहीं भी कुछ ऐसी बात बता जाता है जिसे जागरूक व जिज्ञासु

व्यक्ति खूब अच्छी तरह मनन करके  उसके तत्त्व को समझके अपने जीवन में अमल करके परमानन्द की अनुभूति कर सकता है ।

हमारा आत्म तत्त्व जितना ज्यादा प्रबल होगा हम उतना ही अविकारी भाव से संसार को देखेंगे व सांसारिक मान आदि की उतनी कम इच्छा करेंगे

विवेक की समीक्षा हम अपने अंतरमन में अपने द्वारा लोगों व संसार के प्रति किये गए कर्मों से कर सकते हैं

जितना ज्यादा हम तत्त्व ज्ञान (हमारा स्वरुप आत्मा है जो की अविनाशी है अविकारी है ) में स्थित रहेंगे हम दुनिया में अहिंसा,दया,प्रेम,सहिष्णुता,मानवता,शान्ति जैसे सद्गुणों का सन्देश सहज व निष्कामभाव रूप से देंगे  ।परन्तु जितना हम स्वयं को शरीर मानेंगे हम तीनो गुण (सत्व,रज,तम) में से तम गुण प्रधान होते जायेंगे व काम,क्रोध,मद लोभ अहंकार को बढ़ावा देंगे व दंभ,इर्ष्या,परनिंदा,हिंसा,असहिष्णुता व  द्वेष आदि में ही पड़े रहेंगे व निरंतर बीत रहे समय का सदुपयोग नहीं कर पायेंगे प्रत्युत दुरूपयोग करने के कारण पतनोंमुख रहेंगे इस तरह से स्वयं ही आनंद व परमानन्द का स्रोत होते हुए भी हम देहाभिमान से निवृत्त नहीं हो पाएंगे व अपने जैसे ही जीवधारियों से राग अथवा द्वेष में जीवन बिता देंगे अथार्त उनमे मौजूद एक ही तत्त्व आत्मा का अविद्या व अज्ञान से ग्रसित होने के कारण निरूपण नहीं कर पाएंगे व पतनशील रहेंगे


आत्म तत्त्व की कसौटी ज्ञान तो है परन्तु ज्ञान के साथ ज्ञान का अभिमान होने से भी आत्म-तत्त्व क्षीण होने लगता है इसलिए व्यक्ति को ज्ञान के अभिमान से बचना चाहिए


कबीरदास जी ने इस पर कहा है


कबीरा गर्व न कीजिये कबहूँ न हंसिये कोये

अजहूँ नाव समुद्र में का जाने का होये

अथार्त कभी भी ज्ञान पाके व्यक्ति को अभिमान नहीं करना चाहिए व किसी की हंसी नहीं उडानी चाहिए क्यूंकि आज भी नाव पानी में है यानी ज़रा सी भी असावधानी व्यक्ति की मन बुद्धि को पतंग्रस्त कर सकती है व
अब तक के उसके सद्कर्मों व सदमार्ग से विमुख कर सकती है

गीता में भी दूसरे अध्याय में भगवान् कहते हैं -


इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥

 भावार्थ :   क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु 
हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय व्यक्ति की बुद्धि को हर लेती है॥67॥

इसी तरह से संपूर्ण सृष्टि भगवान् का ही अंग है व समभाव में स्थित रहने को भगवान् श्रेष्ठतम संज्ञा देते हुए तेरहवें अध्याय में कह रहे हैं 


यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥

भावार्थ :  जिस क्षण यह पुरुष भूतों (जीवों )के पृथक-पृथक भाव को एक परमात्मा में ही स्थित तथा उस परमात्मा से ही सम्पूर्ण भूतों(जीव,सृष्टि) का विस्तार देखता है, उसी क्षण वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है॥30॥


तत्त्व ज्ञान निरन्तर बढ़ता रहे अथार्त उसमे हमारी बुद्धि निरंतर दृढ रहे ये हमारे उपासना करने के ऊपर भी निर्भर करता है क्यूंकि उपासना रुपी पानी का क्षेत्र तो प्रभु ने प्रदान किया परन्तु क्या हम बुद्धि रुपी औज़ार से भक्ति रुपी पानी निकाल कर मन को निर्मल कर पा रहे हैं


भगवान् के सामने मात्र दिखावा करके या सांसारिक व विषय चिंतन करते हुए काफी देर पूजा-पाठ करने से अच्छा है व्यक्ति कुछ समय ही लगाये परन्तु श्रद्धायुक्त होके प्रभु का स्मरण करे

और ऐसा करते हुए यदि वो पूजा-पाठ करे तो वो उपासना पथ पर सफल है इतना ही नहीं स्वयं व्यक्ति को भी लगता है की आज प्रभु का सुमिरन या उपासना अच्छी हुई प्रसाद लगाते समय भी
उसका भाव ये होना चाहिए की स्वयं प्रभु आये हुए हैं
। 
 भगवान् ने कहा भी
 

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥
भावार्थ :  जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूप से प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ॥26॥

इसी तरह से पाठ करते हुए उसे समझते भी जाना चाहिए व इन सबसे अधिक ज़रूरी है की सद्ग्रंथों के वचनों का जीवन में अमल भी करना चाहिए

विषय चिंतन के अलावा उपासना में सबसे अधिक व्यक्ति को प्रभु से विमुख करते हैं दुःख,ग्लानी व मायिक मन बुद्धि द्वारा प्रभु चिंतन कैसे हो ये सोच

मन बुद्धि मायिक भी होते हैं और अलौकिक भी व्यक्ति को वैसे हर वक़्त प्रभु का सुमिरन करते रहना चाहिए परन्तु पूजन करते समय खासकर प्रभु से आर्तभाव से शरणागति की विनती करनी चाहिए क्यूंकि बिना हरि कृपा के माया नहीं जाती

क्रोध मनोज लोभ मद माया
छूटहीं सकल राम की दाया(अरण्यकाण्ड)

इसके साथ साथ इस श्लोक का मनन सदैव करता रहे


तीसरा अध्याय -



इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥ 
भावार्थ :  इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानी श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं। इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है॥42॥  

एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्‌ ॥ 
भावार्थ :  इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप (कामना रूप )दुर्जय शत्रु को  मार डाल(वश में कर)॥43॥

जैसे ही हमे ये भान होता है की आत्मा ही चेतन है व आत्मा की ही सत्ता है और मन बुद्धि जो हमेशा व्यक्ति को मूर्खता रुपी मोह माया से बद्ध रखते हैं आत्मा से ही प्रकाशित होते हैं हम अपने स्वरुप में स्थित हो जाते हैं और तभी अध्यात्मिक जगत में सही दिशा में हम अपना पहला सफल कदम बढ़ा पाते हैं
।  इसके बाद धीरे धीरे स्वतः आत्म-तत्त्व निरंतर सदचिंतन,स्वाध्याय व सत्संग करते रहने से प्रखर होता जाता है ।

Saturday 12 November 2011

व्यक्ति के दुखों का मूल कारण अज्ञान है ।

व्यक्ति के दुखों का मूल कारण अज्ञान है । व्यक्ति का जन्म प्रमुखतया ज्ञान हेतु ही हुआ है । परन्तु अपने विवेक को प्रधानता न दे पाने के कारण या दुनिया जैसी है उसी तरह से देखने के कारण और सत्संग साधू जनों के संग से वंचित रहने के कारण व्यक्ति इस नश्वर अनित्य असत्य और असत संसार को ही सबकुछ मान लेता है और फिर परमात्मा से दूर हो जाता है । वो ये भूल जाता है की वो मुसाफिर है और संसार में चंद दिनों के लिए ही आया है उसका ध्येय प्रभु प्राप्ति है और वो उसी से विमुख हो गया । ये सारा जगत परमात्मा का ही एक रूप है । बेकार ही किसी से राग द्वेष रखना बेकार ही किसी बात से दुखित होना क्यूंकि द्रश्यमान जो भी है असत है जो नहीं दिख रहा वोही सत है । इसलिए संसार के दुखों से भी विचलित न हो और सुखों में भी बहता न जाए क्यूँकी संसार स्वयं में दुःख का स्वरुप है खासकर तब जब हम इससे संसारी सुख लेना चाहते हैं । कारण स्पष्ट है की विनाशशील से हमे अविनाशी सुख नहीं मिल सकता । क्यूंकि जो चीज़ स्वयं ही कुछ काल के लिए हो उससे अनंत काल (वास्तविक ) का सुख नहीं मिल सकता वो तो सिर्फ अविनाशी अथार्त इश्वर से ही मिल सकता है । जिस भी व्यक्ति स्थति परिस्थति विचार से हमे आनंद मिलता है या किसी को भी मिला है उसे उसी से बाद में दुःख मिलने लगता है और व्यक्ति स्वयं आनंद का भण्डार होते हुए भी अज्ञानवश दुःख उठाता है ।
अपने स्वरुप अथार्त आत्मा से विलग होकर शरीर को ही स्वयं का स्वरुप मानना ही अज्ञान है और इस शरीर को सुख देने वाली इन्द्रियाँ मन बुद्धि को भी अपना मानना अज्ञानता को और दृढ़ और मज़बूत करना है ।
कारण बहुत स्पष्ट है की आत्मा अविकारी है परमात्मा का अंश है । उसमे विकार आ ही नहीं सकता उसी की सत्ता से मन बुद्धि इन्द्रियां आदि प्रकाशमान होते हैं । आत्मा शाश्वत है उसे संसारी नहीं अनिश्वर तत्त्व ही आनंद प्रदान कर सकता है और वो है स्वयं आत्मा में स्थित होना,परमात्मा से एकाकार होना लेकिन ये कैसी विडम्बना की जीव शरीर को अपना स्वरुप मानकर प्रकाशमान होते हुए भी प्रकाशित (मन,बुद्धि,इन्द्रियां) के  वश हो कर अपनी शाश्वतता को छोड़कर पतन चुन लेता है और परमात्मा की जगह संसार को ही अपना मान लेता है और ये सिलसिला अनवरत चलता रहता है ।
परन्तु विवेकशील अथवा ज्ञानी ज़िन्दगी के रंगमंच पर हर परिस्थिति से हँसते हुए निपटता है क्यूंकि वो उसे भी परमात्मा की कृपा ही समझता है । वास्तव में वासुदेव: सर्वम अथार्त सब कुछ परमात्मा ही है । चाहे वो सुख दुःख हो या फिर इन्द्रिय,मन,बुद्धि यही परमात्मा को तत्त्व से जानना है । अतः जब सब जगह परमात्मा है तो सब जगह सत ही है । ऐसा जानकार व्यक्ति मायाबद्ध नहीं रहता उसे संसार के असत तत्त्व का ज्ञान हो जाता है ।

नासतो विध्ह्यते भावों न भावों विद्यते सत:(गीता २/16 )
अर्थ : असत की तो सत्ता नहीं है और सत का अभाव विद्यमान नहीं है ।

Tuesday 8 November 2011

द्रष्टिकोण


व्यक्ति का द्रष्टिकोण अथार्त नजरिया व्यक्ति के व्यक्तित्व का मानक होता है ।  व्यक्ति की सोच उसके दर्पण के सामान होती है जैसा वो सोचता है वैसा ही उसका भविष्य हो जाता है ! व्यक्ति का चिंतन ही उसके जीवन की दिशा स्पष्ट करता है,जीवन को दशा देता है । जिस तरह स्थूल इन्द्रियाँ(हाथ,पैर,कान  ) सूक्ष्म इन्द्रियों (मन,बुद्धि )से संचालित होती हैं उसी तरह व्यक्ति का आने वाला पल व्यक्ति के आज के चिंतन पर निर्भर करता है ।
व्यक्ति से ही समाज बनता है अतः व्यक्ति का द्रष्टिकोण समाज में भी महती भूमिका निभाता है । समाज के उत्थान व पतन में व्यक्ति की सोच का ही पूरा पूरा योगदान होता है ।
द्रष्टिकोण कई बातों पर निर्भर करता है या ये कहें की द्रष्टिकोण के भी कई मानक होते हैं ।  निश्चित तौर पर परिणामों की गुणवत्ता का द्रष्टिकोण से सीधा सम्बन्ध होता है ।
भौतिक जगत के साथ आध्यात्मिक जगत भी है, अथार्त एक तो जो बाहरी दुनिया है और एक व्यक्ति की आतंरिक दुनिया होती है जिसमे अमूमन व्यक्ति ज्यादा से ज्यादा महत्व स्वयं के अध्ययन अथार्त आत्म अध्ययन को देता है ।  बाहरी दुनिया के प्रति द्रष्टिकोण व आतंरिक दुनिया,अंतर्मन के प्रति द्रष्टिकोण व्यवहारिक तौर से भिन्न लग सकते हैं लेकिन केंद्रीय तौर (उसूली तौर) पर भिन्न नहीं होने चाहिए । 
हमारा चिंतन कितना सार्थक,सकारात्मक है ये हमारी व्यापक सोच व शान्ति,अहिंसा,सहिष्णुता,मानवता व सहज वृत्ति को आधार लेने की गंभीरता पर निर्भर करता है । 
अपने द्रष्टिकोण की समय समय पर की गयी समीक्षा ही व्यक्ति के द्रष्टिकोण का आंकलन करती है और उसके द्रष्टिकोण को परिष्कृत करती है ।  बिना समीक्षा के व्यक्ति द्रष्टिकोण के आधार बिन्दुओं से भटककर पतानोंमुख हो सकता है ।  व्यक्ति की अध्यात्मिक प्रगति भी उसके अपने अच्छे द्रष्टिकोण को व्यवहार में लाने पर ही निर्हर करती है ।  व्यावहारिक जगत व आध्यात्मिक जगत में अलग अलग द्रष्टिकोण अपनाकर ही व्यक्ति सबसे बड़ी ग़लती करता है । यानी जैसे हम जानते हैं की सभी आत्मा हैं लेकिन व्याव्जारिक जगत में अथार्त लोगों से व्यवहार करते हुए हमे उन्हें उनके नाम से ही संबोधन करना पड़ता है जबकि सब का स्वरुप आत्मा है लेकिन हम उन्हें शरीर मान लें या इस संसार में रहते रहते असत को सत्य मान लें यही ग़लती है क्यूंकि फिर हम अपने द्रष्टिकोण के सबसे बुनियादी मानक से ही भटक जायेंगे व स्वयं का स्वरुप भी शरीर(नाशवान) ही मानने लगेंगे ।
इस तरह से हम अपने अविनाशी व अविकारी स्वरुप को भूलकर स्वार्थ,काम,क्रोध,मद,लोभ,इर्ष्या जैसे विकार अपने में मानने लगेंगे और हमारे द्रष्टिकोण को ये विकार जाने-अनजाने  विकारोंमुख करेंगे  ।
ऐसा होने पर हमारे द्रष्टिकोण के मानक बदलने लगेंगे निम्न होते चले जायेंगे क्यूंकि फिर हम वस्तुवादिता को प्रधानता देने लगेंगे और वैसा ही पतनोंमुख द्रष्टिकोण बनाते चले जायेंगे ।  या फिर व्यावहारिक जगत व आध्यात्मिक जगत में अलग अलग द्रष्टिकोण रखेंगे और इस तरह से अपने आध्यात्मिक स्तर पर बहुत धीरे धीरे बढ़ पायेंगे वो भी तब जब जागरूक रहें ।  जबकि इसी उदहारण में व्यक्ति व्यावहारिक जगत में आम व्यवहार
करे बस अंतर्मन में सभी का स्वरुप आत्मा(अविनाशी,अविकारी ) समझे व संसार को नाशवान (असत)  तो अपने बुनियादी द्रष्टिकोण से नहीं भटकेगा व बेहतर तरह से व्यावहारिक व आध्यात्मिक जगत में बढ़ सकेगा ।
इस तरह से व्यक्ति का द्रष्टिकोण ही व्यक्ति के मूल आनंद अथार्त परमानन्द (परमात्मतत्त्व) की प्राप्ति में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।